Sateek Samachar, चंडीगढ़।
पंजाब के तरनतारन में 32 साल पहले हुए फर्जी मुठभेड़ मामले में मोहाली की विशेष सीबीआइ कोर्ट ने दो पूर्व पुलिस अधिकारियों को सजा सुनाई है। पुलिस ने दो लोगों को आतंकावादियों बता कर उनके मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया था। कोर्ट में यह फर्जी मुठभेड़ (Fake Encounter) साबित हुआ था। अदालत ने एक पूर्व पुलिस अधिकारी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। एक अन्य पूर्व पुलिस अफसर को पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई है। उनको हत्या और अन्य आरोपों में सजा सुनाई गई है।
दो लाख रुपये और 50 हजार रुपये के जुर्माने भी लगाए गए , मामले में पांच बरी
स्पेशल सीबीआइ कोर्ट ने तरनतारन के पट्टी में तैनात तत्कालीन पुलिस अफसर सीताराम काे उम्रकैद और दो लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई है। इसके साथ ही पट्टी के तत्कालीन एसएसओ सीता राम को पांच साल कैद और 50 हजार रुपये की सजा सुनाई गई है। दोनों से वसूल की गई जुर्माने की राशि मारे गए लोगों के परिवारों को मुआवजे के रूप में दिया जाएगा। इस मामले में पांच अन्य आरोपों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया।
11 पुलिसकर्मियों को आरोपित बनाया गया था, चार की मुकदमे के दौरान मौत हो गई
इस मामले में 11 पुलिसकर्मियों को आरोपित बनाया गया था। उन पर अपहरण, अवैध हिरासत में रखने और हत्या के आरोप लगाए गए थे। मुकदमे के दौरान चार आरोपितों की मौत हो गई थी। पीड़ित परिवारों के सदस्यों ने कहा है कि बरी किए गए पांच आरोपितों को सजा दिलाने के लिए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में अपील करेंगे।
बता दें कि 30 जनवरी, 1993 तरनतारन के गलीलीपुर के गुरदेव सिंह उर्फ देबा को करन पुलिस चौकी के इंचार्ज एएसआइ नौरंग सिंह के नेतृत्व में गई टीम उसके घर से उठाकर ले गई। इसके बाद 5 फरवरी, 1993 को एएसआइ दीदार सिंह की टीम ने पट्टी थाना क्षेत्र के गांव बहमनीवाला से सुखवंत सिंह नाम के व्यक्ति को उसके घर से उठा लिया। इसके बाद दोनों को 6 फरवरी, 1993 को पट्टी थाना क्षेत्र के भागूपुर क्षेत्र में मुठभेड़ में मारे गए। आरोप था कि दोनों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया है।
पुलिस ने दोनों के शवों का अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनके परिवार के सदस्य उनका अंतिम बार चेहरा भी नहीं देख सके। पुलिस की ओर से कहा गया कि दोनों युवक हत्या और रंगदारी मांगने जैसे अपराध में शामिल थे। पुलिस का यह दावा अदालत में झूठा साबित हुआ। इस मामले की सीबीआइ की जांच में इस मामले में पता चला कि पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ की कहानी गढ़ी थी।
परिवार ने लड़ी लंबी लड़ाई
गुरदेव सिंह उर्फ देबा और सुखवंत सिंह के परिवारों ने उनको न्याय दिलाने व उन आतंकी का दाग मिटाने के लिए कई साल तक जंग लड़ी। 1995 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस मामले की जांच शुरू हुई। प्रारंभिक जांच में 27 नवंबर, 1996 को मामले में पहले एक गवाह ज्ञान सिंह का बयान दर्ज किया गया।
फरवरी, 1997 में सीबीआइ ने जम्मू में पीपी कैरों और पीएस पट्टी के इंचार्ज एएसआइ नौरंग सिंह और अन्य आरोपितों के खिलाफ केस दर्ज किया। इसके बाद वर्ष 2000 सीबीआइ ने जांच पूरी कर तरनतारन के 11 पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की। इन आरोपितों में पीपी कैरों के तत्कालीन प्रभारी नौरंग सिंह, एएसआइ दीदार सिंह, पट्टी के तत्कालीन डीएसपी कश्मीर सिंह, पट्टी के तत्कालीन एसएचओ सीता राम, दर्शन सिंह , वल्टोहा के तत्कालीन एसएचओ गोबिंदर सिंह, एएसआइ शमीर सिंह, एएसआइ फकीर सिंह, सी. सरदूल सिंह, सी. राजपाल और सी. अमरजीत सिंह शामिल थे।